रविवार, मार्च 13, 2011

जिश्म पे घाव

तुम्हारा मुरझाया हुआ चेहरा ,तुम्हारी कहानी है ,
तुम्हारी आँखों में आँसूं नहीं, गंगा का पानी है ,
अपने जिश्म  पे घाव बड़े चाव से ढो रहे हो तुम ,
तुम कुछ कहते क्यों नहीं , मुझे बड़ी हैरानी है ,
गद्दार दरख्तों के साये में  बैठना गद्दारी है ,
बेमन हवाओं में सांस लेना ,बेमानी है ,
ये वक़्त नमाज़  का वक़्त है शायद ,
तभी तो सड़कें इतनी वीरानी है ,
जो बात अब तक अनकही थी अनसुनी थी ,
तुम सुनो न सुनों ,हमें तो सुनानी है ,
तुम्हारा --अनंत 

शनिवार, मार्च 12, 2011

सुलझा रहा हूँ

उसके उलझे बालों पर लिखी थी एक नज़्म ,
वो अब तक उलझी है ,सुलझा रहा हूँ ,
एक हवा सी आई ,याद जग गयी उसकी ,
मैं थपकियाँ दे -दे कर, उसे सुला रहा हूँ ,
कह गयी थी जाते वक़्त ,आवाज़ मत देना ,
वो चली गयी है ,और मैं उसे बुला रहा हूँ ,
एक उदास ग़ज़ल की आँखों में ,नमी के मिसरे ,
बिखरे हुए हैं ,और मैं उसे सजा रहा हूँ ,
जिस जगह बिछड़े थे हम ,ये उसी जगह पड़ा था ,
मैं टूटा हुआ दिल, झुनझुने सा बजा रहा हूँ ,
कुछ जलता हुआ सा है मेरे सीने में ,न जाने क्या है ?
मैं रो -रो कर , उसे अश्कों से बुझा रहा हूँ , 
जिंदगी आई ,ज़मीं पर बैठ गयी हंस कर ,
मैंने  कहा ,अरे रुको मैं अपनी जाँ बिछा रहा हूँ ,
बहुत खोल दिया मैंने खुद को ,तुम्हारे सामने ''अनंत''
न जाने तुम कौन हो मेरे ,जो मैं  राज -ए- दिल बता रहा हूँ ,
''तुम्हारा --अनंत '' 







कल रात से

एक धुवाँ सा बैठा हुआ है मेरे भीतर, कल रात से ,
उठने का मन ही नहीं करता, मैं सोया हुआ हूँ, कल रात से , 
वो मिल गया था ,कल शाम चौराहे  पर , कुछ इस तरह,
कि उससे मिल कर, मैं खोया हुआ हूँ, कल रात से ,
वो जो चराग है ,जल रहा है ,कुछ वक़्त में बुझ जायेगा ,
क्या करे बेचारा अकेले ही  लड़ रहा है ,कल रात से ,
वो शायद  मोम था जिसे मैंने  गरमजोशी से छू दिया ,
लगातार वो मोम का पुतला पिघल रहा है, कल रात से ,
चाँद आवारा हो गया है ,घर पर रुकता ही नहीं ,
बस यहाँ -वहाँ ,जहाँ -तहाँ ,टहल रहा है, कल रात से ,
बरदास्त होता नहीं लगता है जाँ निकल जाएगी ,
एक अदना सा दर्द था जो बढ़ रहा है, कल रात से ,
माँ ने पायल बेंच कर एक किताब मुझे दिलाई है ,
आँखों में आंसू लिए मैं उसे पढ़ रहा हूँ ,कल रात से ,
तुम्हारा --अनंत

















गुरुवार, मार्च 10, 2011

जिन्दगी घाँस नोचती है

 किसी टीले पर अकेले बैठ कर सोंचती  है ,
जिन्दगी जब मायूस होती है तो घाँस नोचती है ,
पड़ती है  जब डांट सास की ससुराल में ,
माँ को याद करके बेटियाँ आंसू पोछती है ,
अँधेरी रात जब अँधेरे से परेशान हो जाती है ,
खुद घर से निकल कर जुगनूवों की टोलियाँ खोजती है,
तितलियाँ नादान हैं  ,मासूम हैं , पछ्ताएँगी ,
ये जो फरेबी फूलों का फरेबी रस चूसती हैं ,
बच्चें चले गए हैं परदेश ,क्या करें, अकेलें हैं ,
दो बूढी आँखें हैं  घर पर ,जो एक दूजे को देखती है ,
''अनंत'' उन बुजुर्गों की आँखों से फिर आंसू नहीं बहते ,
जिनकी  बहती आँखों को नन्हीं हथेलियाँ पोंछती है,
 तुम्हारा- -अनंत   
  

बुधवार, मार्च 09, 2011

चुप रहना पड़ता है

चुप रहो यहाँ पर ,चुप ही  रहना पड़ता है ,
जो न कहना चाहो वो भी हंस -हंस  कहना  पड़ता है ,
मुर्दों के शहर  में सब मुर्दे जिन्दा बन कर रहते है ,
 मुर्दों के बिच में रहना है ,तो मुर्दा बन कर रहना पड़ता है ,
हम  तो एक परिंदा हैं, हवा के संग उड़ जायेंगें ,
जिसे  परिंदा बनाना है ,हम जैसा उड़ना पड़ता है ,
बात कहने को तो हर कोई अक्सर  ही कह देता है ,
पर बात को, बात की तरह कहने को, हिम्मत करना पड़ता है ,
कौन उन्हें समझाए, जो एक बार गिरे, और टूट गए ,
गर सिर ऊंचा कर के चलना है ,तो गिर -गिर कर उठाना पड़ता है ,
 तुम्हारा --अनंत  

मंगलवार, मार्च 08, 2011

आदमी


वो जो आदमी नहीं है ,आदमी बने फिरते है ,
ये जो आदमी हैं, इन्हें लगता ही नहीं ,ये आदमी हैं ,
आज आदमी,आदमी से मतलब रखता नहीं ,
इन  आदमी जैसों को कैसे कहें ,कि ये आदमी है ,
आज इस  कदर बोझ है आदमी के कन्धों पर ,
कि आदमी ,आदमी हो कर भी, लगता नहीं कि आदमी है ,
एक आदमी को कल देखा था नाली से चावल बिनते हुए ,
मेरे भीतर के आदमी ने मुझसे पुछा, कि क्या ये आदमी है ,
एक पागाल के जख्म को एक कुत्ते ने चाट-चाट  कर ठीक कर दिया,
लोगों ने कहा ,क्या कुत्ता है ,मैंने कहा, क्या आदमी है 
हर एक आदमी एक अजब गफलत में है आज  ,
वो आदमी नहीं है ,फिर भी उसे लगता है, कि वो आदमी है ,
आदमियों कि भीड़ में, आदमी खोजता हूँ मैं ,
ये आदमी मुझे देख कर कहते है ,क्या अजीब आदमी है ,
जब कभी देखता हूँ ,किसी आदमी को, तो देखता हूँ, 
इस आदमी के भीतर भी क्या कोई आदमी है ,
खुद के दर्द पर तो हर कोई रोता है ''अनंत'' ,
जो गैंरों के दर्द पर रो पड़े बस वही आदमी है ,
तुम्हारा --अनंत


समंदर का इन्तिजाम हो सकता है

करो हिम्मत तो हर काम आसान हो सकता है ,
इतिहास के पन्नों पर तुम्हारा भी नाम हो सकता है ,
आज जिस नाम पर इतना इतरा रहे हो तुम ,
कल  तुम्हारा वो नाम  भी गुमनाम हो सकता है,
शाम उसकी आँखें पढ़ी ,तो पता चला ,आँखें डाकिया होती है ,
 वरना क्या खबर थी ,आँखों में भी ,प्यार का पैगाम हो सकता है , 
हंसी  आये तो जंगलों की तरफ भाग जाया करो ,
यूं शहर में हंसोगे तो यहाँ रहना हराम हो सकता है ,
ये मंदिर -मश्जिद भी तो  किसी मैखाने से कम नहीं ,
यहाँ फिरकापरस्ती का जाम पी कर, दिमाग जाम हो सकता है,
एक पागल मिला था चौराहे पर पर रोता हुआ ,
बोला मेरा नाम रहीम हो सकता है ,या फिर राम हो सकता है ,
कुछ नामुमकिन नहीं है अनंत बस अरमानों में जोर हो ,
चाहत बलंद हो तो सहरा में समंदर का इन्तिजाम हो सकता है ,
तुम्हारा-- अनंत  

शुक्रवार, मार्च 04, 2011

माँ....

वो मुझे चूमती थी ,गले लगाती थी ,प्यार देती थी ,
जब मैं रोता था, थाली में चंदा उतार देती थी ,
उसके दामन के छोर पर  बंधी रहती थी एक गट्ठी ,
उस गट्ठी को खोल कर वो मुझे दुलार देती थी ,
कोई काम  नहीं बिगड़ता था मेरा यारों ,
जब मैं घर से निकलता था ,वो मुझे  निहार देती थी ,
उसने जब भी माँगा खुदा से मेरी जीत मांगी ,
वो अपनी दुवाओं में मुझे सारा  संसार देती थी ,
मेरी माँ ही छिप कर बैठी रहती थी मेरे भीतर ,
जो मुझे चोट लगने पर अपने नाम पुकार  देती थी ,
बस एक वो ही थी पूरे जहाँ में ''अनंत''
जो मेरे ग़मों के बदले में  ,मुझ पर अपनी खुशियाँ वार देती थी ,
तुम्हारा--अनंत   

मुट्ठी में झाग

एक प्यासा कुंआं है ,एक अँधा चराग ,
पानी को छूने से, लगती है आग 
हांथों में लेकर समंदर चला था ,
अब तो मुट्ठी में केवल बचा है झाग ,
छोड़ कर जंगलों को सब चलते बने ,
खादी पहन कर दिल्ली में फिरते हैं नाग ,
आग बस्ती में तेरी है लग गयी ,
बुझाना है बुझा ,भागना है भाग ,
तू  इन्सां है ,तो इन्सां बन कर जी ,
क्यों इंसानियत के दमन पर बनता है  दाग ,
एक बुड्ढा सा दर्द थक कर सोया हुआ है ,
जरा धीरे से बोलो ,वरना जायेगा जाग ,
जुगनूवों को जोड़ कर एक कर दिया ,
अँधेरे में मिल कर सब हो गए चराग ,
तुम्हारा --अनंत