रविवार, दिसंबर 06, 2015

मैं कुछ इस कदर बंजर हुआ कि बरसता रहा हूँ...!!

मंजिलों को रहगुजर मैं कहता रहा हूँ
दर्द थमता नहीं सो मैं चलता रहा हूँ

वो कोई और है जो उफ़क पर उगा है
मैं तो न जाने कब से ढलता रहा हूँ

ये दरिया मेरे आंसूओं से बना है
मैं रिसता रहा हूँ, पिघलता रहा हूँ

न सूरज, न चंदा, न तारा ही था मैं
महज एक चराग सा जलता रहा हूँ

वो न हसीं, न आंसू, न ख़ामोशी समझे
वो कभी मुझको समझें तरसता रहा हूँ

वो इतने सुलझे थे कि अब क्या कहूँ मैं
उनकी सुलझन में अक्सर उलझता रहा हूँ

वो जो जाते हुए मेरा सावन अपने संग ले गए हैं
मैं कुछ इस कदर बंजर हुआ कि बरसता रहा हूँ

तुम्हारा-अनंत 

तुम ही कहो इससे बड़ा इंकलाब क्या होगा...!!

अपने कातिल को ही सरदार कहना पड़ता है
हमें इससे बढ़कर और अज़ाब क्या होगा

हमने अपनी हथेलियों पे जान रक्खी है
तुम ही कहो इससे बड़ा इंकलाब क्या होगा

हमारे यहाँ तो चरागों ने ही रोशनी कर दी
तुम रखो अब तुम्हारा आफताब क्या होगा

सारी रात अँधेरे में बसर कर दी हमने
सुब्ह को लाए जो ये महताब क्या होगा

हमने तुम्हारी असली सूरत पहचान ली है
हटा दो चेहरे पर से अब ये नक़ाब क्या होगा

वो मंजर देखा है हमने कि अब सो न पाएंगे
जो नींद ही नहीं आनी तो फिर ख्वाब क्या होगा

उनकी बातें ही चमन के चेहरे बिगाड़ देतीं है
वो जो बोल पाएं तो फिर तेज़ाब क्या होगा

इन अदालतों से आस नहीं कि उसका इन्साफ करे
अब देखना ये है, या खुदा तेरा हिसाब क्या होगा

वो डराते हैं हमें कि कुछ ख़राब हो जायेगा "अनंत"
जो होना था हो गया ख़राब अब इससे ख़राब क्या होगा

तुम्हारा-अनंत