बुधवार, जनवरी 07, 2015

जख्मी सपनो की आहें जरा सुनाओ तो...!!

क्या हुआ तुम्हारे साथ जरा बताओ तो
जख्मी सपनो की आहें जरा सुनाओ तो

बहुत तीरगी है, बहुत अँधेरा छाया है 
जुगनू को जोड़ जोड़ खुर्शीद बनाओ तो

धुंएँ ने सारी की सारी बस्ती राख करी 
इस धुएं को तुम जरा आग लगाओ तो

वो आ जायेगा फिर से, मेरा यकीन करो 
पहले जैसा आज फिर से उसे बुलाओ तो

मैं हिमालय सा खड़ा हुआ हूँ न जाने कब से 
मुझको जरा दो घडी अपने पास बैठाओ तो

बादल ने गद्दारी की है, यहाँ सबकुछ सूखा है
तुम अपनी आँख फिर से जरा बरसाओ तो

दरिया को बड़ा गुमान है, अपनी मौजों पर 
तुम अपने दर्द का हिमालय जरा पिघलाओ तो

तुम क्यों काटों पर दर्द बिछा कर सोते हो
तुम्हारे पास ग़ज़ल है, इसे जरा बिछाओ तो

तुम्हारा गम भी हंस देगा साथ तुम्हारे ही 
अपने अश्कों पर तुम जरा मुस्काओ तो

मेरे भीतर का सुकरात बहुत मचलता है
कोई इसको भी थोडा सा जहर पिलाओ तो

ये ख़ामोशी की दीवारें, सब की सब टूटेंगी 
तुम एक बार हिम्मत करके चिल्लाओ तो

नंगा है सबकुछ, तुम्हारा सबकुछ बेपर्दा है
तुम अपनी रूह को जरा कुछ पहनाओ तो

दर्द तुम्हारे भीतर भीतर कुछ गाता है 
आहों के साज फिर आज बजाओ तो

बात जिगर से निकली लब पर अटकी है 
तुम बातों को मंजिल तक पहुँचाओ तो

तुमने गज़ब किया जो खुद को बेंच दिया 
अपने किये पर तुम थोडा पछताओ तो

मानेगें वो सब के सब जो तुमसे रूठे हैं
सच्चे दिल से एक बार उन्हें मनाओ तो

एक लाश तुम्हारे भीतर भीतर सडती है 
पाक सी कब्र खोद कर उसे दफनाओ तो

ग़ज़ल लिखी है "अनंत" तुम्हारे ही खातिर 
तुम तन्हाई की ताल पर इसको गाओ तो

--अनुराग अनंत

मंगलवार, जनवरी 06, 2015

बदनाम है हम यहाँ, हमें बदनाम रहने दो....!!

न बोलो तुम जुबां से,आँखों को कहने दो
बहता हूँ मैं भी, तुम भी खुद को बहने दो

एक अहसास है सीने में तुम्हारे भी मेरे भी
कोई नाम न दो इसको, इसे बेनाम रहने दो

ए नाम वालों तुमसे बस ये इल्तिजा है कि
बदनाम है हम यहाँ, हमें बदनाम रहने दो

बेकिनारा है दरिया, बिन साहिल है समंदर
कोई बांधों न इनपर बाँध, आर पार बहने दो

गिरी हैं जो तुम्हारी पलकें तो शाम तारी है
न उठाओ इनको कुछ देर और शाम रहने दो

छुड़ा कर हाँथ, वो ये कह कर, चली गयी
छेड़ो न मुझको अब और, घनश्याम रहें दो
--अनुराग अनंत

ये जिंदगी तो गम का सामान हुई जाती है

ये जिंदगी तो गम का सामान हुई जाती है
दरिया के दहाने पर रेगिस्तान हुई जाती है

सोचा था लिखूंगा ग़ज़ल रुखसारों की चमक पर
पर मेरी ग़ज़ल तो बेवा की मुस्कान हुई जाती है

तेरा हुस्न, तेरा इश्क़, तेरी चाहत सब के सब कातिल हैं
ये जिन्दगी तेरी मुहब्बत में अफगानिस्तान हुई जाती है

सुना है, लाल किले की आवाजों में मेरा जिक्र ही नहीं है
मेरे सवाल, मेरी कहानी विदर्भ का किसान हुई जाती है

एक बूँद जो छलक आई है, आँखों के समंदर से
बेचारी बाज़ार के सहरा में परेशान हुई जाती है

मेरी बोली में उर्दू और हिंदी दोनों महकती है "अनंत"
मेरी आवाज़ एक मुकम्मल हिन्दुस्तान हुई जाती है

अनुराग अनंत