शुक्रवार, अप्रैल 15, 2011

वो शहर इलाहाबाद न होता !

मैं जीस्त के  सारे गम भूल जाता ,
गर वो मुझे अब तक याद  न होता ,
 मुस्कुरा ले  दिल ! ये कहता अपने दिल से मैं ,
गर दिल बेचारा ये, मेरा नाशाद न होता ,
ये दर्द की दौलत मुझे कैसी मिलती यार, 
गर मैं उसकी चाहत में, इस कदर बर्बाद न होता ,
बड़ा तल्ख़ था वो वक़्त, जिसने हमें शायर बनाया हैं, 
हम कायर हो गए होते, गर इरादा फौलाद न होता ,
बड़ी तरीके से मारा हैं, उसने हमें प्यार में अपने,
कौन मरता हंस करके ,गर वो यूँ हंसी जल्लाद न होता ,
कई भटके हुए आशिक बसे हैं,  इस अदब के जंगल में,
गर उन्हें मंजिल मिल गयी होती, ये जंगल आबाद न होता ,
एक शहर में दो संगम हो नहीं सकते ,
हमारा मिलन हो गया होता, गर वो शहर इलाहाबाद न होता ,
तुम्हारा --अनंत                                                         
                                                       

1 टिप्पणी:

डॉ. दिलबागसिंह विर्क ने कहा…

अनंत क्या कहें तुमसे,बस दर्द कहता है,
ये खता तुम्हारी है, जो तुम उसे ग़ज़ल कहते हो,
nhin main ise agazal kahta hoon ,meri rachnaaen bhi esi hi hain aur ye gazal nhin hain kyon n ise agazal ke nam se sthapit karne ka pryas kiya jaae.bahr ko chhod den to aapki rachna hai lazvab .iska to kahna hi kya
कई भटके हुए आशिक बसे हैं, इस अदब के जंगल में,
गर उन्हें मंजिल मिल गयी होती, ये जंगल आबाद न होता ,
sahityasurbhi.blogspot.com