सोमवार, मई 16, 2011

तुम्हारी और मेरी मुस्किल

तुम्हारी और मेरी मुस्किल, कोई नई नहीं है यार ,
अक्सर जिस्म जान को, समझ नहीं पाता ,
लाख उलझन को सुलझाने की कोशिश करो ,
जो दिल का उलझा है फिर, सुलझ नहीं पाता ,
यूँ ही खामोश नहीं हो जाता, मैं तेरे सामने , 
ढूंढता हूँ लब्ज़ पर लब्ज़ नहीं पाता ,
मेरे दीद के बादल तेरी याद में दिन रात बरसें  है ,
एक तेरी आँखों का सावन है, जो बरस नहीं पाता ,
हो वस्ल-ए-मौत तो ,खुदा से एक बात पूंछे हम ,
जिसे हम समझते हैं, वो क्यों हमे समझ नहीं पाता ,

तुम्हारा --अनंत  

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