रविवार, दिसंबर 06, 2015

मैं कुछ इस कदर बंजर हुआ कि बरसता रहा हूँ...!!

मंजिलों को रहगुजर मैं कहता रहा हूँ
दर्द थमता नहीं सो मैं चलता रहा हूँ

वो कोई और है जो उफ़क पर उगा है
मैं तो न जाने कब से ढलता रहा हूँ

ये दरिया मेरे आंसूओं से बना है
मैं रिसता रहा हूँ, पिघलता रहा हूँ

न सूरज, न चंदा, न तारा ही था मैं
महज एक चराग सा जलता रहा हूँ

वो न हसीं, न आंसू, न ख़ामोशी समझे
वो कभी मुझको समझें तरसता रहा हूँ

वो इतने सुलझे थे कि अब क्या कहूँ मैं
उनकी सुलझन में अक्सर उलझता रहा हूँ

वो जो जाते हुए मेरा सावन अपने संग ले गए हैं
मैं कुछ इस कदर बंजर हुआ कि बरसता रहा हूँ

तुम्हारा-अनंत 

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