सोमवार, फ़रवरी 20, 2012

चाहता हूँ दो घडी बैठूं सुकून से ......

चाहता हूँ मैं भी दो घडी बैठूं सुकून से,
पर क्या करूँ मोहलत नहीं मिलती जूनून से,
दौड़ता हूँ दिन-रात ख्व्बों के पीछे इस कदर,
कि पाँव मेरे सन गए हैं, मेरे खुद के खून से,
शहर की महफ़िलों में मुझे सिर्फ तन्हाई मिली,
कितना दूर चला आया हूँ, मैं अपने गाँव कि धूम से,
दूर से देखा था तो लगा, कि ये भीड़ काफी अच्छी है,
पर अब तंग आ चूका हूँ इस मशीनी हुजूम से,
लिए फिरते हैं दुनिया की  दौलत-ओ-शोहरत साथ अपने,
फिर भी लगते हैं ये लोग कितने महरूम से,
पढ़े लिखे इंसानों में एक मशीन पनप आई है,
एक मुद्दत से नहीं मिलें हैं,कहीं इंसान मासूम से,

तुम्हारा --अनंत





1 टिप्पणी:

Rajesh Kumari ने कहा…

दूर से देखा था तो लगा, कि ये भीड़ काफी अच्छी है,
पर अब तंग आ चूका हूँ इस मशीनी हुजूम से,
लिए फिरते हैं दुनिया की दौलत-ओ-शोहरत साथ अपने,
फिर भी लगते हैं ये लोग कितने महरूम से,
पढ़े लिखे इंसानों में एक मशीन पनप आई है,
एक मुद्दत से नहीं मिलें हैं,कहीं इंसान मासूम से,
vaah ...lajabaab sachaai ke kafi kareeb.bahut umda likha hai.