ये शायरी मेरी जान की दुश्मन है
मैं जिसे मर मर कर गले लगाता हूँ
तुम जख्मो पर मरहम लगाते होगे
मैं अपने ज़ख्मो पर ज़ख्म लगाता हूँ
तुम अपने होने पर कितना इतराते हो
मैं अपने होने से कितना घबराता हूँ
तुम जब मुझे जीने की दुआएं देते हो
मैं कुछ हल्का-हल्का सा मर जाता हूँ
एक नींद भीतर बहुत दिनों से जगती है
मैं उसको बाहर से रोज़ सुलाता हूँ
मैं रोज़ एक क़त्ल का आदी हूँ
मैं रोज़ खुद का गला दबाता हूँ
तुम्हारा - अनंत
मैं जिसे मर मर कर गले लगाता हूँ
तुम जख्मो पर मरहम लगाते होगे
मैं अपने ज़ख्मो पर ज़ख्म लगाता हूँ
तुम अपने होने पर कितना इतराते हो
मैं अपने होने से कितना घबराता हूँ
तुम जब मुझे जीने की दुआएं देते हो
मैं कुछ हल्का-हल्का सा मर जाता हूँ
एक नींद भीतर बहुत दिनों से जगती है
मैं उसको बाहर से रोज़ सुलाता हूँ
मैं रोज़ एक क़त्ल का आदी हूँ
मैं रोज़ खुद का गला दबाता हूँ
तुम्हारा - अनंत
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें