बुधवार, अप्रैल 26, 2017

मैं अपने ज़ख्मो पर ज़ख्म लगाता हूँ

ये शायरी मेरी जान की दुश्मन है
मैं जिसे मर मर कर गले लगाता हूँ

तुम जख्मो पर मरहम लगाते होगे
मैं अपने ज़ख्मो पर ज़ख्म लगाता  हूँ

तुम अपने होने पर कितना इतराते हो
मैं अपने होने से कितना घबराता हूँ

तुम जब मुझे जीने की दुआएं देते हो
मैं कुछ हल्का-हल्का सा मर जाता हूँ

एक नींद भीतर बहुत दिनों से जगती है
मैं उसको बाहर से रोज़ सुलाता हूँ

मैं रोज़ एक क़त्ल का आदी हूँ
मैं रोज़ खुद का गला दबाता हूँ

तुम्हारा - अनंत

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