क्या हुआ तुम्हारे साथ जरा बताओ तो
जख्मी सपनो की आहें जरा सुनाओ तो
बहुत तीरगी है, बहुत अँधेरा छाया है
जुगनू को जोड़ जोड़ खुर्शीद बनाओ तो
धुंएँ ने सारी की सारी बस्ती राख करी
इस धुएं को तुम जरा आग लगाओ तो
वो आ जायेगा फिर से, मेरा यकीन करो
पहले जैसा आज फिर से उसे बुलाओ तो
मैं हिमालय सा खड़ा हुआ हूँ न जाने कब से
मुझको जरा दो घडी अपने पास बैठाओ तो
बादल ने गद्दारी की है, यहाँ सबकुछ सूखा है
तुम अपनी आँख फिर से जरा बरसाओ तो
दरिया को बड़ा गुमान है, अपनी मौजों पर
तुम अपने दर्द का हिमालय जरा पिघलाओ तो
तुम क्यों काटों पर दर्द बिछा कर सोते हो
तुम्हारे पास ग़ज़ल है, इसे जरा बिछाओ तो
तुम्हारा गम भी हंस देगा साथ तुम्हारे ही
अपने अश्कों पर तुम जरा मुस्काओ तो
मेरे भीतर का सुकरात बहुत मचलता है
कोई इसको भी थोडा सा जहर पिलाओ तो
ये ख़ामोशी की दीवारें, सब की सब टूटेंगी
तुम एक बार हिम्मत करके चिल्लाओ तो
नंगा है सबकुछ, तुम्हारा सबकुछ बेपर्दा है
तुम अपनी रूह को जरा कुछ पहनाओ तो
दर्द तुम्हारे भीतर भीतर कुछ गाता है
आहों के साज फिर आज बजाओ तो
बात जिगर से निकली लब पर अटकी है
तुम बातों को मंजिल तक पहुँचाओ तो
तुमने गज़ब किया जो खुद को बेंच दिया
अपने किये पर तुम थोडा पछताओ तो
मानेगें वो सब के सब जो तुमसे रूठे हैं
सच्चे दिल से एक बार उन्हें मनाओ तो
एक लाश तुम्हारे भीतर भीतर सडती है
पाक सी कब्र खोद कर उसे दफनाओ तो
ग़ज़ल लिखी है "अनंत" तुम्हारे ही खातिर
तुम तन्हाई की ताल पर इसको गाओ तो
--अनुराग अनंत
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