शनिवार, मार्च 12, 2011

कल रात से

एक धुवाँ सा बैठा हुआ है मेरे भीतर, कल रात से ,
उठने का मन ही नहीं करता, मैं सोया हुआ हूँ, कल रात से , 
वो मिल गया था ,कल शाम चौराहे  पर , कुछ इस तरह,
कि उससे मिल कर, मैं खोया हुआ हूँ, कल रात से ,
वो जो चराग है ,जल रहा है ,कुछ वक़्त में बुझ जायेगा ,
क्या करे बेचारा अकेले ही  लड़ रहा है ,कल रात से ,
वो शायद  मोम था जिसे मैंने  गरमजोशी से छू दिया ,
लगातार वो मोम का पुतला पिघल रहा है, कल रात से ,
चाँद आवारा हो गया है ,घर पर रुकता ही नहीं ,
बस यहाँ -वहाँ ,जहाँ -तहाँ ,टहल रहा है, कल रात से ,
बरदास्त होता नहीं लगता है जाँ निकल जाएगी ,
एक अदना सा दर्द था जो बढ़ रहा है, कल रात से ,
माँ ने पायल बेंच कर एक किताब मुझे दिलाई है ,
आँखों में आंसू लिए मैं उसे पढ़ रहा हूँ ,कल रात से ,
तुम्हारा --अनंत

















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