एक प्यासा कुंआं है ,एक अँधा चराग ,
पानी को छूने से, लगती है आग
हांथों में लेकर समंदर चला था ,
अब तो मुट्ठी में केवल बचा है झाग ,
छोड़ कर जंगलों को सब चलते बने ,
खादी पहन कर दिल्ली में फिरते हैं नाग ,
आग बस्ती में तेरी है लग गयी ,
बुझाना है बुझा ,भागना है भाग ,
तू इन्सां है ,तो इन्सां बन कर जी ,
क्यों इंसानियत के दमन पर बनता है दाग ,
एक बुड्ढा सा दर्द थक कर सोया हुआ है ,
जरा धीरे से बोलो ,वरना जायेगा जाग ,
जुगनूवों को जोड़ कर एक कर दिया ,
अँधेरे में मिल कर सब हो गए चराग ,
तुम्हारा --अनंत
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