मिली आँख जो उससे ,वो पसीना -पसीना हो गयी ,
दबे पाँव ज़ीने से उतरी, और उतर कर खो गयी ,
कल मैंने रात को रात भर जगाए रखा था ,
हुई सुबह तो दिन का दामन बिछा कर सो गयी ,
यूं तो पड़ा था मैं किसी नदि में सूखा -सूखा ,
तेरी याद की बारिश हुई और मुझे भिगो गयी ,
उस खंडहर के पीछे मैं अब कभी नहीं जाता ,
जहाँ तुम तन्हाई की सब्ज़ फसल बो गयी ,
अनंत मैं तो रुक गया होता ,थक कर बुझ गया होता ,
एक उसके आने की उम्मीद में जिंदगी चराग़ हो गयी ,
तुम्हारा --अनंत
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें