वो मुझे चूमती थी ,गले लगाती थी ,प्यार देती थी ,
जब मैं रोता था, थाली में चंदा उतार देती थी ,
उसके दामन के छोर पर बंधी रहती थी एक गट्ठी ,
उस गट्ठी को खोल कर वो मुझे दुलार देती थी ,
कोई काम नहीं बिगड़ता था मेरा यारों ,
जब मैं घर से निकलता था ,वो मुझे निहार देती थी ,
उसने जब भी माँगा खुदा से मेरी जीत मांगी ,
वो अपनी दुवाओं में मुझे सारा संसार देती थी ,
मेरी माँ ही छिप कर बैठी रहती थी मेरे भीतर ,
जो मुझे चोट लगने पर अपने नाम पुकार देती थी ,
बस एक वो ही थी पूरे जहाँ में ''अनंत''
जो मेरे ग़मों के बदले में ,मुझ पर अपनी खुशियाँ वार देती थी ,
तुम्हारा--अनंत
3 टिप्पणियां:
दोस्त,
जितनी तारीफ़ की जाए (मेरे हिसाब से) आपकी इस रचना की कम पड़ जायेगी! वाह! कमाल! कमाल का लिखा है! सच कहूं तो शब्द नहीं कि तारीफ़ कर सकूं!
जारी रहें.
dhanya vad amit ji
thats a good dud
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