मैं यहां इसलिए लुटा हूँ कि संवर सकूं
इसलिए समेटा है ख़ुद को कि बिखर सकूं
तुम्हारी आँखों पे चढ़ गया हूँ मैं इसलिए
रफ्ता रफ्ता तुम्हारी नज़रों से उतर सकूं
ठहरा हुआ हूँ इसलिए इस मोड़ के मुहाने पर
कि आतिश-ओ-आफ़त से हँस कर गुजर सकूं
मैं जी रहा हूँ मर जाने के इस मौसम में भी
कि सही वक़्त आने पर सुकून से मर सकूं
मैं कुछ नहीं करता हूँ 'अनंत' बस इसलिए
जो करना चाहूं बस वही, बस वो कर सकूं
अनुराग अनंत
इसलिए समेटा है ख़ुद को कि बिखर सकूं
तुम्हारी आँखों पे चढ़ गया हूँ मैं इसलिए
रफ्ता रफ्ता तुम्हारी नज़रों से उतर सकूं
ठहरा हुआ हूँ इसलिए इस मोड़ के मुहाने पर
कि आतिश-ओ-आफ़त से हँस कर गुजर सकूं
मैं जी रहा हूँ मर जाने के इस मौसम में भी
कि सही वक़्त आने पर सुकून से मर सकूं
मैं कुछ नहीं करता हूँ 'अनंत' बस इसलिए
जो करना चाहूं बस वही, बस वो कर सकूं
अनुराग अनंत
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